व्याख्यान

अष्टावक्र गीता

सत्य के स्वभाव पर एक सर्वश्रेष्ठ ज्ञानवर्धक प्रवचन श्रृंखला

अष्टावक्र गीता क्या है

‘अष्टावक्र गीता’ राजा जनक और अष्टावक्र के मध्य हुए एक प्राचीन संवाद  को प्रस्तुत करती है। राजा जनक के भीतर सांसारिक जिम्मेदारियों के साथ यथार्थता के स्वभाव  के बारे में गहन आध्यात्मिक प्रश्न हैं| जनक पूछते हैं "सत्य क्या है?"  इसके साथ ही इस ग्रह पर किसी भी काल में होने वाले सबसे अनोखे वार्तालाप का आरंभ होता है| अष्टावक्र, जनक का हाथ पकड़  कर कदम दर कदम, ज्ञान के उस गहरे तल तक ले जाते हैं जहाँ उनमें बोध का प्रकाश जग जाता है|

श्री श्री रविशंकर द्वारा की गयी व्याख्या

33 व्याख्यानों की एक श्रृंखला में श्री श्री रविशंकर जी  ने बताया है कि कैसे राजा जनक को ज्ञान के गहरे स्तर पर ले जाया जाता है और कैसे इस ज्ञान का  अपने जीवन में उपयोग किया जा सकता है। यह व्याख्या इस प्राचीन रहस्यमय ग्रंथ को  बोधगम्य बनाती है जिससे यह हमारे आधुनिक जीवन में जीवंत हो उठे|

अष्टावक्र गीता मन, अहंकार, द्वंद्व और स्वयं की, अद्वितीय अंतर्दृष्टि के द्वारा  गहराई से जांच करती है जो केवल एक गुरु के द्वारा ही सम्भव है। परम पूज्य गुरुदेव ने कुशलता से प्राचीन ज्ञान, उत्कृष्ट कथाओं और व्यावहारिक बुद्धिमत्ता को मनोरम व्याख्यानों में बुना है, जिसने अष्टावक्र गीता को सत्य के परम जिज्ञासु के लिए एक अमूल्य उपकरण और सहयोगी बना दिया है|

श्री श्री के व्याख्यान से उद्धरण

“यदि तुममे मुक्त होने की चाह उठी है तो तुम्हें अपनी पीठ थपथपानी चाहिए, तुम सौभाग्यशाली हो ! इस ग्रह पर करोड़ों लोगों के पास ऐसा आशीर्वाद नहीं है ! यहाँ तक कि वे वास्तव में जीवन जीते ही नहीं ! बस जीवित रहते हैं, मर जाते हैं और फिर विलीन हो जाते हैं | उन्हें उकताहट नहीं होती है | यदि वे उकताते भी हैं तो उनकी उकताहट किसी तुच्छ वस्तु के प्रति होती है | थोड़ा सा भी परिवर्तन उन्हें सहज कर देता है | तो जो लोग उकता जाते हैं वे बहुत भाग्यशाली हैं |” श्री श्री रवि शंकर
“अपने वास्तविक स्वभाव में तुम उसी क्षण मुक्त हो, जिस क्षण तुम यह देखते हो यह तुममें नहीं है| यदि तुम दर्द में हो, देखो कि यह देह में हो रहा है| यदि मन में खिंचाव या ख़ुशी है तो देखो कि यह तना हुआ, उदास अथवा प्रसन्न है| मात्र यह अनुभव करो कि तुम आनंदित नहीं हो रहे हो, यह कहीं और घट रहा है, जैसे कि यह कहीं और हो रहा है|” श्री श्री रवि शंकर
“अपनी वाणी से किसी को दुःख मत पहुँचाओ क्योंकि परमात्मा हर ह्रदय में वास करते हैं !” श्री श्री रवि शंकर
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