सूखा ग्रस्त कुर्नूल ज़िले के छोटे किसानों के लिए अप्रत्याशित लाभ के अवसर

वर्ष 2016 में भारत में 8,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। कृषि क्षेत्र में यह एक और कष्टकर व  दुःखदायी वर्ष था जिसमें जीवन खोने जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पुनरवृत्ति हुई ।इस देश के किसान दीर्घकाल से क़र्ज़  के बोझ, फसलों की बर्बादी, बीमारियों  तथा सामाजिक दबाव जैसी समस्याओं से जूझते आए हैं। 60 के दशक में प्रारम्भ हुई हरित क्रांति के कारण भले ही हमने देश में खाद्य सुरक्षा प्राप्त कर ली हो, जो शायद उस समय की माँग भी थी, परंतु उन्ही रासायनिक उर्वरकों , कीटनाशकों  व संकर बीजों  जिन्हें अधिक पैदावार वाले बीजों का नाम दिया गया, ने हमारे भू जल स्त्रोतों को ज़हरीला बना दिया, मिट्टी को आवश्यक पोषक तत्त्वों से वंचित कर दिया और ईकोसिस्टम को बुरी तरह से प्रभावित किया है। 

इस सब के कारण किसान  उर्वरकों तथा रसायनों पर इतने  निर्भर हो गए कि यह सब ख़रीदने के लिए एक से अधिक स्त्रोतों से ऋण लेने को मजबूर हो गए ।यद्यपि रसायनों तथा उर्वरकों पर सरकारी अनुदान दिया जाता है , फिर भी अल्प वर्षा जैसे कारणों से फसलों का नुक़सान हो जाता है , जो किसानों को असहाय बना देते हैं ।किसान इस स्थिति में नहीं होते कि वो अपने ऋण चुका सकें, इसलिए उन्हें साहूकारों के पास जाना पड़ता है । यह सब उनको ऋण के दुश्चक्र में फँसा देता है । 

पूरे वर्ष, जब अधिकतर किसान अपनी उपरोक्त समस्याओं से जूझते हुए उनके समाधान खोजने में लगे रहे, 

महबूब बाशा नामक, आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गाँव लक्ष्मापुरम के किसान ने सिर्फ़ 15 दिन में अपनी केवल 1.5 एकड़ कृषि भूमि पर 8,000 किलो हरी मिर्च की पैदावार कर के खबरों में छा गया । 

उसी वर्ष में उसका ज़िला भयंकर सूखे से प्रभावित हुआ । जबकि लक्षमापुरम  गाँव के सभी किसानों ने सूखा पीड़ित कोष से मुआवज़ा प्राप्त किया, सिर्फ़ बाशा ने लाभ अर्जित किया। वास्तव में उसको वर्ष 2016 के लिए राज्य सरकार द्वारा सर्वश्रेष्ठ कृषक पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।

  विशिष्टताएं 

  • कुर्नूल में 1,550 कृषकों का प्रशिक्षण ; 500 ने प्राकृतिक कृषि को अपनाया । 
  • 1,800 एकड़ भूमि प्राकृतिक खेती में लाई गयी ।
  • इन किसानों के मार्ग दर्शन हेतु दीर्घ काल के लिए एक अनुभवी परामर्शदाता भी उपलब्ध करवाया ।
  • प्राकृतिक कृषि अपनाने से कृषि उत्पादन लागत कम होती है । 
  • कम पानी से अधिक भूमि पर कृषि उपज पैदा की जा सकती है । इससे मिट्टी को पुनर्जीवन मिलता है तथा उपज में वृद्धि होती है । 
  • एक देसी गाय से 15-20 एकड़ कृषि भूमि पर खेती की जा सकती है , वातावरण में जैविक संतुलन बना रहता है , भूमि सुरक्षित रहती है तथा  रासायनिक उर्वरकों पर दिए जाने वाले करोड़ों रुपए के अनुदान की बचत होती है । 
  • यह कार्यक्रम आरम्भ में तीन महीने के लिए परीक्षण के तौर पर आरम्भ किया गया , इसको एक वर्ष के लिए बढ़ाया गया , और अब इसे आंध्र प्रदेश में राज्य सरकार द्वारा पाँच वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है । 
  • प्राकृतिक खेती में प्रति एकड़ उत्पादन लागत 1,000 रुपए से कम है । 

उसी सूखा ग्रस्त ज़िले के  एक अन्य किसान , संजीव रेड्डी ने अपनी 26 एकड़ कृषि भूमि पर निवेश  के लिए दो लाख रुपए का ऋण लिया । वह ठीक 60 दिनों में अपना ऋण चुकता करने में सक्षम था । कुर्नूल ज़िले के एक सीमान्त किसान, शेख़ शाह अली ने सर्फ़ लाल मिर्च उगा कर केवल 10 महीने में 14 लाख रुपए कमाए। अपनी फसल से उसने 15000 रुपए प्रति क्विंटल अर्जित किए जबकि उसके समकक्ष अन्य किसान केवल 9000 रुपए कमा पाए। 

 कुर्नूल ज़िले के मिट्टूर व ओरवाकल से बाशा और 500अन्य किसान देश में गति पकड़ रही इस नई क्रांति का लाभ उठा रहे हैं । वे इतनी पैदावार तथा अर्जित लाभ का सारा श्रेय श्री श्री प्राकृतिक  खेती  की तकनीक को देते हैं तथा इसके आभारी हैं ।कुर्नूल ज़िले में 1550 से अधिक किसानों को  श्री श्री इन्स्टिटूट ओफ़ ऐग्रिकल्चर साइयन्स एंड टेक्नॉलोजी  द्वारा प्रशिक्षित किया गया है ।इन लोगों ने रासायनिक खेती से प्राकृतिक खेती की तरफ़ का अत्यंत आवश्यक परिवर्तन कर लिया है। 

उसी ज़िले के एक अन्य गाँव , ऊय्यालवाड़ा ने उस समय में , जब लगातार ४२ दिन तक बारिश की एक बूँद भी नहीं बरसी थी , कपास, सूरजमुखी, काले, हरे व लाल चने जैसी फसलों की औसत पैदावार में अढ़ाई गुणा अधिक पैदावार की उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखी। जबकि अन्य किसानों की फसलें पानी की कमी के कारण सूख गयी थी । यहाँ हम एक ऐसे गाँव की बात कर रहे हैं जहां न तो कोई कुआँ है और न ही सिंचाई का कोई साधन ! भू-जल की उपलब्धता सतह से  एक हज़ार फुट नीचे गहराई पर है तथा पूरे गाँव में केवल पाँच बोरवेल हैं । श्री श्री प्राकृतिक कृषि अपनाने वाले किसानों की आय विपरीत मौसमी परिस्थितियों में भी तीन गुणा हुई है। 

हमारे स्वयंसेवक जिस शक्तिशाली श्वास प्रक्रिया के अभ्यास से समाज को ऊर्जावान तथा केंद्रित बनाए रखने के लिए तत्पर रहते हैं, आप भी वह प्रक्रिया सीख सकते हैं।

 

कृषि उत्पादन के प्राकृतिक तरीक़े प्रकृति के अंगों में पहले से मौजूद पारस्परिक सम्बन्धों में घुलने मिलने का काम करते हैं । उदाहरण के तौर पर दालें और अनाज उसी भूमि पर एक साथ उगाए जा सकते हैं , क्योंकि दलहनों की जड़ों पर उपलब्ध जीवाणु वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन को सोख कर अनाजीय फसलों के लिए आवश्यक उर्वरक उपलब्ध कराते हैं । इसी प्रकार गाय के गोबर व मूत्र के मिश्रण से तैयार जीवामृत जैसे मिश्रण में ऐसे जीवाणु होते हैं जो मिट्टी में उपस्थित पोषक तत्त्वों को विश्लेषित कर फसलों के लिए आसानी से उपभोग करने लायक़ बना देते हैं , तथा इसके बदले में इन जीवाणुओं को मिट्टी में अधिक देर तक जीवित रहने का लाभ मिलता है । एस एस आइ ए एस टी की परियोजना , “ श्री श्री प्राकृतिक कृषि” हमारे वेदों में उपलब्ध ज्ञान तथा प्राचीन ऋषियों द्वारा अर्जित ज्ञान , कि प्रकृति किस प्रकार से पारस्परिक लाभदायक सम्बन्धों को बढ़ावा दे कर जीवन को आगे बढ़ाती है , का ही उपयोग करती है ।

एस एस आइ ए एस टी के एक ट्रस्टी, प्रभाकर रेड्डी, यह पूछने पर कि ऐसा क्या है जो इस प्रोजेक्ट को सफल बना रहा है, कहते हैं, “ हमारा संकल्प है कि किसान की पूरे फसल चक्र की अवधि में सहायता करनी हैं। हम उन्हें , क्षेत्र और मौसम के अनुसार व्यक्तिगत स्तर पर उत्पादन सामग्री / सलाह देते हैं। हम ऐसा इसलिए कर पाते हैं क्योंकि हमने किसान के साथ सामाजिक परितंत्र स्थापित किया है । हम मात्र कृषि परियोजना की ही बात नहीं करते ।” 

आर्ट ऑफ़ लिविंग समाज के साथ “ युवा नेतृत्व प्रशिक्षण कार्यक्रम ( यूथ लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम - वाय.एल.टी.पी ) तथा ध्यान कार्यशालाओं जैसे माध्यमों द्वारा कई स्तर पर जुड़े रहते हैं। 

 “ वाय. एल. टी. पी. कार्यक्रम ने स्वयंसेवकों के( जिन्हें युवाचार्य कहा जाता है )  बहुत सारे समूह तैयार किए हैं , जो स्थानीय स्तर पर प्रासंगिक सामाजिक परियोजनाओं पर काम करते हैं ; जैसे कि नदी पुनर्जीवन तथा जल संरक्षण परियोजनाएँ , सौर ऊर्जा द्वारा विद्युतीकरण, स्वच्छ भारत अथवा नशा मुक्ति अभियान ।” - रेड्डी बताते हैं । 

 युवाचार्यों का पूरा ध्यान विशिष्ट कार्यों पर होता है , जैसे कि जीवामृत बनाना, अथवा जैविक कीटनाशक जैसे नीमस्त्रा, ब्रह्मस्त्रा आदि; जिनसे किसानों को दीर्घावधि तक प्राकृतिक कृषि अपनाए रखने में सहायता मिलती है । हमने किसान समाज में से ही प्राकृतिक कृषि प्रशिक्षक तैयार किए हैं। सभी गाँव वासियों को सप्ताह में एक दिन ध्यान, सत्संग व भजन गाने आदि के लिए एक जगह एकत्रित किया जाता है। यही सामाजिक सहायता है जिस के कारण किसान बदली हुई तकनीक को आसानी से अपना रहे हैं । 

रेड्डी अपने आप को निरंतर  मिल रहे संरक्षण व मार्गदर्शन के लिए कृतज्ञता प्रकट करते हैं ।

 “हालाँकि मैंने पहले भी प्राकृतिक कृषि कार्यशालाओं में भाग लिया है , यह एसएसआइएएसटी द्वारा दिया गया मार्गदर्शन ही है जिसने मुझे प्राकृतिक कृषि अपनाने का आत्मविश्वास दिया ।अधिक लोगों को , लगातार हो रहे नुक़सान के बावजूद , कुछ भी नया अपनाने में भय लगता है । रासायनिक खेती से मुझे 8 क्विंटल कपास भी नहीं मिलती , परंतु प्राकृतिक खेती से मुझे 32 क्विंटल मिली। निरंतर 42 दिन तक कोई वर्षा न होने पर भी जीवामृत ने मेरी फसल को जीवित रखा । “ मैं जितने अधिक लोगों तक यह बात पहुँचा सकता हूँ , पहुँचाऊँगा “ .. वह आस्थापूर्वक कहते हैं ।

श्री श्री प्राकृतिक कृषि के संबंध में 

 श्री श्री प्राकृतिक कृषि द्वारा प्रशिक्षित लोग लघु एवं सीमांत किसान हैं जिनकी कुल भूमि पाँच एकड़ से कम

 है। साधारणतया ये लोग बीज, खाद व कीटनाशकों पर 10,000 रुपए प्रति एकड़ तक खर्च करते हैं । परंतु देसी गाय की सहायता से इनकी उत्पादन लागत गिर कर 1,000रुपए प्रति एकड़ तक आ गयी है । सूखा ग्रस्त या सूखे जैसी परिस्थियों में यह किसान आशा की किरण बन कर खड़े हैं ; इनकी फसलें स्वस्थ तथा रोग मुक्त हैं तथा उत्पादन रसायन रहित , जिससे यह लाभ कमा रहे हैं जबकि इनके जैसे दूसरे सामान्य किसान सरकार द्वारा दी जा रही सूखा पीड़ित कोष सहायता पर निर्भर हैं।

आरम्भ में केवल प्रायोगिक तौर पर मात्र  तीन महीने के लिए मिली स्वीकृति से लेकर , श्री श्री प्राकृतिक कृषि कार्यक्रम को अब आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा पाँच वर्ष के लिए अधिकृत किया जा रहा है। वर्तमान में  500 किसानों और 1800 एकड़ भूमि पर की जा रही कृषि का मार्गदर्शक मॉडल अत्यंत सफल रहा है। यह उपलब्धि केवल एक वर्ष में प्राप्त की गयी है। अब इनको दूसरे राज्यों को प्रशिक्षित करने हेतु आमंत्रित किया जा रहा 

है। अभी हाल ही में कर्नाटक के चिकनगलूर ज़िले में 200 किसानों का प्रशिक्षण कार्यक्रम आरम्भ किया गया है । 

लेखिका : संहिता  गोमथम