प्रश्न : गुरुदेव प्रणाम। कृष्ण पांडव की तरफ थे। उनको मालूम था जहाँ मैं रहूँगा वहीं जीत है। फिर भी उनकी सेना उन्होंने कौरवों को दे दी। तो उस टाईम उनके राजधर्म की कोई अलग परिभाषा थी या कोई और वजह थी? उनको मालूम है मेरी सेना का ध्वंस होना तय है। फिर भी उन्होंने दे दी। वह वजह क्या हो सकती है?
सबकी माँगें पूरी करते थे श्री कृष्ण
कृष्ण सबकी मांग पूरा करते थे। एक मूवी के डायरेक्टर होते हैं, वह विलन कुछ माँगे, उनको भी उन्हे देना पड़ता है और हीरो मांगे उनको भी देना पड़ता है। ऐसे ही श्रीकृष्ण के लिए सब एक थे। मित्र और शत्रु सब समान थे। वह कहानी है ना? श्रीकृष्ण लेटे हुए थे। अर्जुन भी आ गया। अर्जुन पाँव के पास बैठा। और दुर्योधन आया, उनसे मदद मांगने। वह सर के पास बैठा। पहले, दुर्योधन पहले आया था। मगर वह पाँव के पास बैठने गया, फिर उनको लगा, अरे मैं तो राजा हूँ। मैं इनके चरणों में क्यों बैठूँ? इसलिए उनके सर के पास बैठा। सर के पास बैठा। और श्रीकृष्ण तो नाटक कर रहे थे सोने का। श्री कृष्ण भी बड़े चालू थे। तो उन्होंने कहा, “अभी तो मैं संकट में पड़ गया।”
जहाँ नम्रता नहीं होती वहाँ भगवान् नहीं होते
उनको यह भी पता था, उनकी खुद की सेना में भी बहुत झंझट हो गई थी। इतने घमंडी हो गए थे, उनके अपने सेना के लोग। जैसे कंपनी NCLT में चली जाती है ना। इस तरह से उस वर्ज में थे कि इससे किसी तरह से छुटकारा पाऊँ, इससे निकलूँ। वे लोग इन्हें हलके में लेने लगे थे। अरे भगवान तो हमारे हैं। इतना, मेरा भगवान है तो इतना गर्व तो होता ही है। फिर सब भूल भाल के नम्रता नहीं थी, कुछ नहीं था उनकी सेना में।
कृष्ण जहाँ भी गए वहाँ सबको मुक्त किया
तो उस वक्त अर्जुन आया तो वह चरणों में बैठ गया। तो तुरंत उठ के पूछे अर्जुन से, ‘भई, तुम्हें क्या चाहिए?’ बोला, ‘नहीं आप हो, काफी है हमारे लिए।’ तब श्रीकृष्ण को कुछ देना ही पड़ा उसको भी, दूसरे को। तब उन्होंने कहा, ‘चलो अब हमारी सेना दे देंगे तुझको।’ इस तरह से बड़े चालाकी से किया है वह तो। और उनको भी मुक्ति मिली है। कृष्ण की सेना में तो मुक्ति मिल ही गई उन सब को।
कृष्ण का जीवन लीला ही रहा
श्री कृष्ण के पूरे महाभारत में यही है, जहाँ गए वहाँ युद्ध पैदा किया और सब को मुक्ति दी। और एक जगह तो रणछोड़राय, गुजरात में जाके वह तो रण छोड़ के भाग भी आए। तो श्री कृष्ण को समझना, आँकना सब से मुश्किल है। तो इसीलिए उनको कहते हैं यह लीला है भगवान की। लीला माने खेल है। और खेल में इधर का उधर, उधर का इधर कुछ भी कर सकते है। और कोई भी चीज सिरियस नहीं। उनको यह सब खेल ही रहा। क्यों? कोई दूसरे तो थे ही नहीं। सब अपने ही स्वरूप में थे।
कृष्ण का उपदेश मानों, अनुकरण राम का करो
कृष्ण के 'उपदेश' का अनुकरण करो। कृष्ण को मत अनुकरण करो। क्यों? कृष्ण की हर चाल टेढ़ी ही होती थी। रामचंद्रजी के चाल पर चलो। श्री रामचंद्रजी जो भी, पिताजी जो बोले वह वाक्य था उनके लिए। श्री कृष्ण अपने पिता की एक भी बात नहीं मानी। कृष्ण की चाल पर नहीं चलना। बस, कृष्ण की बात सुनो, उपदेश सुनो और अनुकरण करो राम का, यही बोलते हैं। इसलिए देखो, यहाँ दक्षिण भारत में जहाँ ज्यादा ट्रैडीशनल बेस है, श्री रामजी के मंदिर गाँव गाँव में मिलता है। श्री कृष्ण के नहीं मिलते हैं। गीता सब जगह होती है, गाँव-गाँव में मगर मंदिर हनुमान जी का होगा, रामचंद्र जी का होगा। गुजरात एक छोड़ के भारत में अधिक तौर सब जगह गाँव-गाँव में श्री राम मंदिर ही होता है।
संकलन एवं संपादन : रत्नम सिंह
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी की ज्ञान वार्ता पर आधारित