जब कोई भी व्यक्ति गुरु गोबिंद सिंह जी का नाम सुनता है तो उसके मन में सिर्फ एक ही व्याख्या आती है--संत-सिपाही। शौर्य और साहस के प्रतीक गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर 1666 को बिहार के पटना में हुआ। उनके बचपन का नाम गोविंद राय था और वे दसवें सिख गुरु थे। एक आध्यात्मिक गुरु होने के साथ-साथ वे एक निर्भयी योद्धा, कवि और दार्शनिक भी थे। जब उनके पिता, गुरु तेग बहादुर सिंह जी ने इस्लाम में परिवर्तित होने से इनकार कर दिया, तो उनका सिर काट दिया गया। तब 9 वर्ष के गुरु गोबिंद सिंह को औपचारिक रूप से सिखों के गुरु के रूप में स्थापित किया गया।
दिन | तारीख |
रविवार | १३ जनवरी २० १९ |
गुरूवार | २ जनवरी २०२० |
बुधवार | २० जनवरी २०२१* |
रविवार | ९ जनवरी २०२२* |
गुरूवार | २९ दिसंबर २०२२* |
बुधवार | १७ जनवरी २०२४* |
*तिथि बदल सकती हैं। (Dates may change)
गुरु गोविन्द सिंह की जयंती के अवसर पर श्री श्री रविशंकर जी के साथ हुए सत्संग के सारांश
यदि आज भारत में संस्कार और धर्म स्थापित हैं, तो उसका पूरा श्रेय गुरु गोबिंद सिंह जी को जाता है। सभी १० गुरुओं ने भारत और भारत के वासियों के लिए बहुत कुछ किया है, उन्हें मार्ग दिखाया है। जिस प्रकार से वे देश में इतना परिवर्तन लाये, उसके लिए भारत की धरती सदैव गुरु गोबिंद सिंह जी की कृतज्ञ रहेगी। इस देश के साधु, संत और महात्मा हमेशा अपने मठ में या अपने मंदिरों में ही रहे, वे अपनी पूजा-पाठ और परम्पराओं में ही उलझे रहे और समाज के लिए कुछ नहीं किया। जो लोग समाज सेवा करते थे और सच्चे सिपाही थे – वे धर्म से कोसों दूर थे। उनके अन्दर कोई साधुत्व नहीं था। तब गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा, ‘मन में साधु बनो, व्यवहार में मधुरता लाओ और भुजाओं में सैनिक की वीरता लाओ’। तब उन्होंने ‘संत-सिपाही’ का नारा लगाया। और वे स्वयं सबसे महान संत-सिपाही बनें।
संत-सिपाही का अर्थ है करूणामय होना और भयभीत नहीं होना। बिना किसी कर्म के एक जगह बैठ जाना नहीं, सिर्फ बैठे रहना और सब कुछ स्वीकार करते जाना कि, ‘ओह, सब कुछ भगवान ही कर रहा है’ – यह ठीक नहीं है। जहाँ पर खड़े होकर धर्म की रक्षा करने की आवश्यकता है – तब खड़े होना चाहिए। जब देश को इसकी अत्यंत ज़रुरत थी – तब यह महान नारा गुरु गोबिंद सिंह जी ने लगाया।
वे काली माँ के बहुत बड़े भक्त थे। वे हर युद्ध पर जाने से पहले चंडी होमा करते थे, देवी माँ की आराधना करते थे। उन्होंने गुरु-परंपरा के सम्मान पर भी प्रकाश डाला, कि किस प्रकार जीवन में गुरु-तत्व का महत्व है। उन्होंने यह भी कहा, कि “यदि कोई जीवित गुरु नहीं हैं, तब ग्रन्थ को ही गुरु माना जाए। ज्ञान ही गुरु है। ज्ञान और गुरु में कोई भेद नहीं है। ग्रन्थ का अर्थ है ‘ज्ञान’। जब ज्ञान किसी के जीवन का अभिन्न अंग बन जाए, तब वह ही गुरु है। यदि ज्ञान को जीवन में उतारा ही न जाए, तब कोई गुरु कैसे बन सकता है? ज्ञान और गुरु के बीच कोई अंतर नहीं है, इसीलिये ग्रन्थ और गुरु में भी कोई अंतर नहीं है।”
यह सब उपरोक्त बातें उन्होंने कहीं थीं, और साथ ही ‘संत-सिपाही’ का नारा भी लगाया था।